चंडीगढ़ में हाल ही में हुई फर्नीचर मार्केट की तोड़फोड़ की कार्रवाई ने शहर के हजारों लोगों की ज़िंदगी को हिला कर रख दिया है। यह मार्केट लंबे समय से शहर के व्यापारिक ताने-बाने का हिस्सा रही है, जहां सैकड़ों दुकानदारों और मजदूरों ने अपने जीवन का आधार बनाया हुआ था। लेकिन प्रशासन की ओर से अचानक की गई इस कार्रवाई ने इन सभी लोगों की आजीविका छीन ली और उन्हें अनिश्चित भविष्य की ओर धकेल दिया।
प्रशासन का कहना है कि यह कार्रवाई कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा थी। उनके अनुसार, इस मार्केट को लेकर वर्षों से नोटिस दिए जा रहे थे और अंततः अदालत के आदेश के बाद यह कदम उठाया गया। उन्होंने यह भी दावा किया कि पूरी कार्रवाई शांतिपूर्ण तरीके से की गई और किसी प्रकार की हिंसा या झड़प नहीं हुई। उनके मुताबिक, यह ज़रूरी था क्योंकि ज़मीन सरकारी थी और उस पर अवैध रूप से कब्जा किया गया था।
दूसरी तरफ़, प्रभावित दुकानदारों और मज़दूरों का कहना है कि उन्हें इस कार्रवाई की न तो पूरी जानकारी दी गई थी और न ही कोई वैकल्पिक स्थान दिया गया जहां वे अपना व्यवसाय फिर से शुरू कर सकें। उनका कहना है कि प्रशासन ने केवल नोटिस देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ली, लेकिन ज़मीन से जुड़े लोगों की ज़रूरतों और समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
इस मार्केट का इतिहास भी काफी अस्थिर रहा है। यह वर्षों से एक अस्थायी जगह पर स्थित थी और इसे लेकर हमेशा विवाद बना रहा। कई बार व्यापारियों ने स्थायी स्थान की मांग की, लेकिन उनकी आवाज़ को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। इसके बावजूद लोग अपने घर चलाने के लिए यहीं दुकानें लगाते रहे और धीरे-धीरे यह मार्केट एक बड़े व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हो गई।
यह कार्रवाई न केवल आर्थिक नुकसान लेकर आई, बल्कि मानसिक रूप से भी लोगों को तोड़ गई। दुकानदारों ने बताया कि वे वर्षों की पूंजी और मेहनत से खड़ी की गई दुकानों को टूटते हुए देख रहे थे और कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। कई मजदूरों को एक ही दिन में काम से निकाल दिया गया और वे अपने परिवार का पेट पालने को लेकर चिंतित हैं।
प्रशासन ने यह जरूर कहा है कि भविष्य में एक संगठित “बल्क मार्केट” विकसित की जाएगी जहां इन व्यापारियों को जगह दी जाएगी। लेकिन इस वादे के पीछे कोई ठोस योजना या समयसीमा अभी तक सामने नहीं आई है। लोग आशंकित हैं कि कहीं यह वादा भी बाकी कई सरकारी वादों की तरह अधूरा न रह जाए।
इस पूरी घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या विकास और क़ानून व्यवस्था की आड़ में गरीबों और छोटे व्यापारियों की अनदेखी की जा सकती है। क्या यह ज़रूरी नहीं था कि तोड़फोड़ से पहले उनकी आजीविका का कोई स्थायी समाधान निकाला जाता? क्या यह संवेदनशील प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वह जनता को केवल नियमों से नहीं, बल्कि इंसानियत से भी देखे?
दुकानदारों का यह भी कहना है कि अगर प्रशासन ने पहले से उनके लिए कोई वैकल्पिक जगह तय की होती, तो वे स्वेच्छा से अपनी दुकानें वहाँ शिफ्ट कर लेते। लेकिन उन्हें न तो समय मिला, न स्थान और न ही सहयोग। सिर्फ बुलडोज़र भेजकर उनकी पूरी मेहनत को मिट्टी में मिला दिया गया।
इस पूरे मामले में यह बात भी चिंताजनक है कि इस घटना पर प्रशासन ने केवल औपचारिक बयानबाज़ी की है, जबकि प्रभावित लोगों के दर्द को समझने का कोई प्रयास नहीं किया गया। मीडिया में कुछ हद तक यह मुद्दा उठा, लेकिन स्थायी समाधान की दिशा में अभी तक कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया है।
चंडीगढ़ जैसे विकसित शहर में इस तरह की घटना यह दिखाती है कि अभी भी विकास की दौड़ में गरीबों और छोटे व्यापारियों को पीछे छोड़ दिया जाता है। जब तक उनके लिए संवेदनशील और व्यावहारिक समाधान नहीं निकाले जाते, तब तक ऐसी घटनाएं सिर्फ दर्द देंगी और व्यवस्था पर सवाल खड़े करती रहेंगी।
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