धर्मस्थल पर मालिकाना हक जताना, कितना सही??

धर्मस्थल पर मालिकाना हक जताना एक गहरी सोच और बहस का विषय है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या चर्च किसी एक व्यक्ति की जागीर नहीं बल्कि समाज और समुदाय की सामूहिक आस्था का प्रतीक होते हैं। जब कोई व्यक्ति या परिवार उन पर अपना हक जताने लगता है तो यह आस्था के साथ सीधा खिलवाड़ माना जाता है।

धर्मस्थल को हमेशा से ही ईश्वर का घर कहा गया है। ईश्वर या अल्लाह सबका होता है, उसका घर भी सबके लिए खुला होना चाहिए। लेकिन जब कोई उसे अपनी निजी मिल्कियत समझने लगता है तो वहां धार्मिक सौहार्द की जगह विवाद पनपने लगते हैं।

धर्म का मकसद इंसानों को जोड़ना है, लेकिन मालिकाना हक जताने की सोच इंसानों को बांटने का काम करती है। जब कोई गुट अपने हक की बात करता है तो दूसरा गुट खुद को ठगा हुआ महसूस करता है और वहीं से संघर्ष शुरू हो जाता है।

इतिहास गवाह है कि जब-जब धर्मस्थलों को व्यक्तिगत संपत्ति की तरह इस्तेमाल किया गया, तब-तब खून-खराबा और झगड़े हुए। असल में धार्मिक स्थल का मालिकाना हक जनता की आस्था में निहित होता है, न कि किसी व्यक्ति के कागज़ों या ताले में।

कानूनी दृष्टि से भी धर्मस्थल किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं हो सकते। उन्हें या तो ट्रस्ट, वक्फ बोर्ड या मैनेजमेंट कमेटी संभालती है। यानी वे सामूहिक संस्थाओं के अधीन होते हैं, व्यक्तिगत मालिकाना हक का दावा कानून भी खारिज कर देता है।

धार्मिक स्थल को अपनी संपत्ति मानना ईश्वर को भी बांधने जैसा है। जिस खुदा या भगवान ने पूरी कायनात बनाई, उसे किसी एक इंसान के घर या ताले में कैद नहीं किया जा सकता। यह सोच न सिर्फ तंगदिल है बल्कि धार्मिक भावना के खिलाफ भी है।

समाज में जब-जब धर्मस्थलों पर मालिकाना हक के विवाद हुए हैं, तब-तब आम जनता की आस्था आहत हुई है। लोग अपने ईश्वर के घर को ताले और झगड़ों में फंसा देखकर निराश होते हैं। इससे धार्मिक संस्थाओं पर विश्वास भी कमजोर होता है।

धर्मस्थलों को निजी संपत्ति समझना सत्ता और पैसे की लालच का नतीजा भी होता है। कई लोग धर्म के नाम पर जनता की भावनाओं का शोषण कर अपने हित साधते हैं। इससे धर्म का असली मकसद, यानी इंसानियत और भाईचारे का संदेश, पीछे छूट जाता है।

आज जरूरत है कि समाज मिलकर इस मानसिकता का विरोध करे। धर्मस्थल किसी की निजी संपत्ति नहीं बल्कि समाज की धरोहर हैं। इन्हें विवाद से दूर रखकर आस्था और भाईचारे का केंद्र बनाना ही सबसे बड़ा धर्म है।

धर्मस्थल को निजी जागीर की तरह समझना न तो आस्था के लिहाज से सही है, न कानून की नजर में और न ही इंसानियत की कसौटी पर। यह सोच धर्म और इंसान दोनों को कमजोर करती है। धर्म का सही सम्मान तभी होगा जब उसके घर को सबका मानकर सबके लिए खुला रखा जाए।