ब्रिटिश भारत का 1947 में हुआ विभाजन बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण और दुखद घटनाओं में से एक था। इसने भारत और पाकिस्तान को दो स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में जन्म दिया, लेकिन साथ ही नरसंहार, बड़े पैमाने पर विस्थापन और गहरी मानवीय त्रासदी को जन्म दिया। यह घटना केवल राजनीतिक मानचित्र में बदलाव नहीं थी, बल्कि दक्षिण एशियाई समाज के ताने-बाने को स्थायी रूप से बदलने वाली प्रक्रिया थी।
विभाजन के दौरान लगभग एक करोड़ से डेढ़ करोड़ लोग अपने घर छोड़ने पर मजबूर हुए और लाखों लोग हिंसा में मारे गए। यह हिंसा अचानक फूटे दंगों की तरह नहीं थी, बल्कि संगठित और सामूहिक रूप से लोगों को उनके घरों से उखाड़ने वाली थी। महिलाओं के साथ यौन हिंसा, अपहरण और प्रताड़ना जैसी घटनाएं हुईं, जिनका असर आने वाली पीढ़ियों तक महसूस किया गया।
आर्थिक दृष्टि से विभाजन ने उपमहाद्वीप की एकीकृत अर्थव्यवस्था को खंडित कर दिया। पंजाब की नहरें, बंगाल का जूट उद्योग और कपास-आधारित व्यापार तंत्र बिखर गए। कच्चे माल और प्रसंस्करण केंद्र अलग-अलग देशों में चले जाने से उत्पादन और व्यापार पर गहरा असर पड़ा। प्रवासियों ने अपने घर, व्यवसाय और संपत्ति खो दीं और पुनर्वास की प्रक्रिया भ्रष्टाचार व नौकरशाही के कारण और भी कठिन हो गई।
सांस्कृतिक रूप से विभाजन ने साझा भाषाओं, संगीत, कला और धार्मिक परंपराओं को अचानक तोड़ दिया। लाहौर, अमृतसर और ढाका जैसे बहुसांस्कृतिक शहर अब लगभग एकरूप हो गए। उर्दू जैसी भाषाएं, जो कभी पूरे उत्तर भारत में आम थीं, राजनीतिक सीमाओं और राष्ट्रीय पहचानों की वजह से हाशिये पर चली गईं। यह सांस्कृतिक क्षति पीढ़ी-दर-पीढ़ी अविश्वास और अलगाव को बढ़ाती रही।
राजनीतिक रूप से, विभाजन ने कुछ नेताओं और नौकरशाहों को भारी लाभ पहुँचाया। पाकिस्तान में मुस्लिम लीग का सपना पूरा हुआ, जबकि भारत में कांग्रेस नेतृत्व ने एक केंद्रीकृत और मजबूत राष्ट्र-राज्य बनाने का अवसर पाया। दोनों देशों में संपत्ति के पुनर्वितरण ने नए अभिजात वर्ग को जन्म दिया, जिनका उदय अधिकतर राजनीतिक संपर्क और अवसरवाद पर आधारित था, न कि वास्तविक जरूरत पर।
सिंधी हिंदू समुदाय का अनुभव इस परिवर्तन की जटिलता को दर्शाता है। धार्मिक असुरक्षा के कारण उन्होंने सिंध छोड़कर भारत के विभिन्न हिस्सों में बसना पड़ा। अपनी भाषा, संस्कृति और मातृभूमि से दूर होने के बावजूद उन्होंने व्यापार और सामुदायिक सहयोग के जरिए खुद को पुनः स्थापित किया। हालांकि उनकी सफलता उनकी दृढ़ता का प्रमाण है, लेकिन उनकी पहचान और मानसिक स्वास्थ्य पर इसका गहरा असर पड़ा।
विभाजन की विरासत केवल इतिहास तक सीमित नहीं रही। भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर जैसे मुद्दों पर हुए युद्ध, परमाणु हथियारों की होड़ और सीमा पर सैन्यीकरण ने संसाधनों को विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य से दूर कर दिया। सांप्रदायिक राजनीति, धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति अविश्वास और भेदभाव दोनों देशों में जारी हैं।
1971 में पूर्वी पाकिस्तान का बांग्लादेश में बदलना इस बात का प्रमाण था कि केवल धार्मिक एकता से विविध समाज को एकजुट नहीं रखा जा सकता। भाषाई, आर्थिक और राजनीतिक असमानताओं ने एक और विभाजन को जन्म दिया, जिससे क्षेत्र में और शरणार्थी संकट और संघर्ष पैदा हुए।
आज, विभाजन की स्मृतियां और उसके कारण बने पूर्वाग्रह अब भी दक्षिण एशिया की राजनीति और समाज को प्रभावित कर रहे हैं। यह घटना एक शून्य-योग खेल की तरह थी, जिसमें थोड़े लोगों ने भारी राजनीतिक लाभ उठाए जबकि करोड़ों आम लोग पीड़ा, विस्थापन और नुकसान के शिकार बने।
अगर दक्षिण एशिया को 1947 की छाया से आगे बढ़ना है, तो जरूरी है कि भविष्य की नीतियां स्मृति, न्याय और सीमा पार सहयोग को प्राथमिकता दें। तभी इस विभाजन के गहरे घावों को भरने और एक साझा, शांतिपूर्ण भविष्य की नींव रखने की संभावना बनेगी।
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